हर मां-बाप अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सुविधा देना चाहते हैं और उनकी हर मांग तुरंत पूरी करने की कोशिश करते हैं। लेकिन मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि हर मामले में बच्चों की सहायता के लिए तैयार रहना और किसी चीज के लिए उन्हें संघर्ष न करने देना, उन्हें मानसिक तौर पर कमजोर बनाता है।
ऐसे बच्चे व्यक्तिगत जीवन में आने वाली परेशानी, आर्थिक परेशानी या ऑफिस में कार्य के दौरान पड़ने वाले तनाव के दौरान टूट जाते हैं, जिनका उन्हें बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है। मनोचिकित्सकों की राय है कि बच्चों को परिस्थितियों से जूझने की ट्रेनिंग देनी चाहिए।
इंडियन साइकेट्रिक सोसायटी के चेयरमैन डॉक्टर म्रुगेश वैष्णव ने अमर उजाला को बताया कि आजकल शहरों में पल रहे बच्चे बहुत अधिक सुविधा प्राप्त करते हैं। उनकी इच्छा होते ही माता-पिता उनकी हर मांग पूरी करने को हरदम तैयार रहते हैं। किसी भी विपरीत परिस्थिति में माता-पिता हमेशा उनकी मदद के लिए तैयार रहते हैं।
ऐसे में उनके अंदर विषम परिस्थितियों से जूझने, उनसे लड़ने और उससे बाहर निकलने के गुणों का विकास नहीं हो पाता। यही कारण है कि जब व्यवहारिक जिंदगी में उन्हें तनाव का सामना करना पड़ता है तो ऐसे बच्चे उनका मजबूती से सामना नहीं कर पाते और डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं।
डॉक्टर म्रुगेश वैष्णव के मुताबिक, जबकि ग्रामीण इलाकों में पल रहे ज्यादातर बच्चों को अपनी जरूरतों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कई बार एक छोटी से जरूरत के लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ता है, यही कारण है कि उनके अंदर धैर्य रखने जैसे आवश्यक गुणों का स्वाभाविक विकास हो जाता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति में बच्चों को इस तरह के तनाव का सामना करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
क्यों सहन नहीं कर पाते तनाव
विशेषज्ञों के मुताबिक जिन बच्चों में तनाव को सहन करने की क्षमता का विकास नहीं हो पाता, वे किसी भी समस्या को बहुत बड़ा करके देखने लगते हैं। उन्हें लगता है कि इन समस्याओं का अब कोई हल निकल ही नहीं सकता है। उन्हें समस्या का हल केवल अपनी मौत के बाद छुटकारे के रूप में दिखाई पड़ता है। यही कारण है कि ऐसे लोग आत्महत्या के उपाय सोचने लगते हैं।
हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि इन लक्षणों को पहचाना जा सकता है। इससे निकलने के लिए अब प्राथमिक चिकित्सा की तरह प्राइमरी हेल्थ सेंटरों पर भी अवसाद, तनाव, चिंता जैसे विषयों में सलाह देने के लिए विशेषज्ञ नियुक्त किये जाने चाहिए।
पोस्ट कोविड समय में आत्महत्या के मामले बढ़े
गुजरात राज्य में जुलाई माह में आत्महत्या के मामले पिछले वर्ष की तुलना में तीन गुने हो चुके हैं। अन्य राज्यों में भी इसी तरह की स्थिति देखने को मिल रही है। कोरोना संक्रमण का सबसे ज्यादा सामना करने वाले चीन और इटली में भी आत्महत्या के मामले बढ़ गए हैं। चीन में अवसाद के मामले 40.8 फीसदी और चिंता से पीड़ित (Anxiety) के मामले 50.2 फीसदी तक बढ़ गए हैं।
आत्महत्या के मामलों का सबसे बड़ा कारण मानसिक बीमारी को माना जाता है, जो इस तरह के मामलों में 40 फीसदी से अधिक जिम्मेदार पाया जाता है। इसके बाद पति-पत्नी या प्रेम संबंध बड़ा कारण होते हैं। आश्चर्यजनक रूप से ऑफिस में कार्य संचालन के दौरान होने वाला तनाव और आर्थिक विषमता कुल आत्म हत्याओं की पांच से दस फीसदी मामलों में ही जिम्मेदार होती है।
आत्महत्या के आंकड़े प्रति दस लाख की आबादी पर 12 के लगभग होते हैं। कुल मामलों में पुरुषों की आत्महत्या के प्रयास महिलाओं की तुलना में ज्यादा होते हैं। जबकि आत्महत्याओं के मामले में 15 से 30 वर्ष की आयु के युवा सबसे ज्यादा संवेदनशील होते हैं।
40 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के लोग आत्महत्या के मामले में सबसे कम संवेदनशील होते हैं, विशेषज्ञ मानते हैं कि जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देख चुके ऐसे युवा मानते हैं कि ये जीवन के चरण हैं जिनका समय से हल निकल जाएगा, जबकि संघर्ष की कमी के कारण 15-30 आयु वर्ग के युवा इन परिस्थितियों के सामने सबसे ज्यादा घुटने टेक देते हैं और आत्महत्या की गलत राह चुन लेते हैं।