19 नवंबर सुबह 9:00 बजे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने राष्ट्र के नाम संबोधन किया। और संबोधन का केंद्रीय बिंदु रहा तीन कृषि कानून जो सरकार ने संसद में पिछले साल नवंबर में शीतकालीन सत्र में लागू करवाए थे। कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए बहुत लंबे समय से आंदोलन चल रहा था। राकेश टिकैत व अन्य किसान संगठन अपने अपने स्तर पर इन कानूनों का विरोध कर रहे थे। क्या यह मान लिया जाए कि सरकार पर वास्तव में इन आंदोलनों का प्रभाव पड़ा जिस वजह से सरकार को यह कदम उठाना पड़ा। या फिर फरवरी और मार्च में होने वाले चुनावों को देखते हुए बीजेपी को कोई बड़ा नुकसान ना हो उसके लिए यह कदम उठाया गया है। बीजेपी भी नहीं चाहेगी कि किसानों की नाराजगी उसे आगामी होने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारी पड़ जाए। किसानों के मुद्दे हमेशा से ही भारतीय राजनीति में केंद्रीय बिंदु रहे हैं। पार्टियां अक्सर अपने चुनावी घोषणा पत्रों में किसानों के लिए लुभावने वादे करती रही हैं। लेकिन फिर भी आजादी के इतने वर्ष बाद भी सरकारों के प्रयासों का अधिक प्रभाव देखने को नहीं मिला। सरकारें बदलती रहीं लेकिन किसानों के हालात में कोई बदलाव नहीं देखा गया। वोट बटोरने की मारामारी में किसान हमेशा पिस्ता ही रहा है, जब भी नई सरकार आती है किसानों की उम्मीद भी जग जाती है, लेकिन वह उम्मीद धीरे धीरे धुंधली भी पढ़ती जाती है, क्योंकि सरकार बदलने से किसानों की सेहत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस सरकार ने हमेशा ही खुद को एक मजबूत सरकार के रूप में प्रचारित किया है, ऐसे में कृषि कानूनों का वापस लेना दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि सरकार का पहले कहना था कि इन कानूनों से किसानों के हालात में क्रांतिकारी बदलाव होंगे, आंदोलनों से डर कर कानून वापस ले लेना सरकार को किसी भी रूप में मजबूत नहीं दर्शाते हैं। जब भी सरकार कोई कानून बनाती है तो उसे यह ध्यान रखना पड़ता है, इस कानून के समर्थन के साथ-साथ इसका विरोध भी होगा और सरकार को उन दोनों के लिए ही पूरी तरह तैयार होना चाहिए। जिन कानूनों को सरकार किसानों के हित में बता रही थी उन कानूनों को आंदोलनों के डर से या फिर आने वाले चुनावों के परिणाम को ध्यान में रखते हुए वापस ले लेना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। एक मजबूत सरकार से लोग यह सवाल भी पूछेंगे कि विरोध के डर से जिस तरह कृषि कानूनों को वापस लिया है क्या उसी तरह सी ए ए और धारा 370 को भी वापस लिया जा सकता है। निश्चित तौर पर इस कदम से,एक खड़े हुए आंदोलन को जरूर खत्म किया जा सकता है।लेकिन भारत में होने वाले बदलाव की संभावना को गहरा धक्का लगा है। तो क्या अब यह मान लिया जाए कि जो प्रयास बदलावों के लिए किए जाएंगे किसी के द्वारा विरोध करने पर उसे तुरंत खत्म कर दिया जाएगा और वह भी एक मजबूत सरकार द्वारा। बीजेपी हमेशा से ही कांग्रेस पार्टी को राजनैतिक इच्छाशक्ति में कमी होने के कारण उसे कोसती रही है। बीजेपी हमेशा से ही यूपीए सरकार को एक कमजोर सरकार और कठोर फैसले ना लेने वाली सरकार मानती रही है। फिर चाहे वह करप्शन का मामला हो या काले धन का। लेकिन इन तीनों कृषि कानूनों के वापस लिए जाने को यह क्यों ना समझा जाए कि मौजूदा एनडीए सरकार में भी इच्छाशक्ति की कमी है। वह कठोर फैसले लेना तो जानती है पर उन फैसलों पर फिर कायम नहीं रह पाती। जब आप कोई भी कठोर फैसला लेते हैं तो आपको उसके कठोर परिणामों के लिए भी तैयार होना चाहिए। तो क्या अब यह समझा जाए कि यह सरकार कठोर फैसले आगे भी लेगी लेकिन उनका विरोध होने पर वापस उन फैसलों को वापस भी ले लेगी?उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में फरवरी और मार्च के महीने में चुनाव होने हैं। कृषि कानूनों के वापस होने के अपने कई राजनीतिक मायने भी हैं। अब यह तो 2022 पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा के कृषि कानून वापस लेने का फैसला एक संयोग था या फिर एक प्रयोग।।
संपादकीय
शैलेंद्र सिकरवार